Wednesday 29 July 2015

इबादत

इबादत

प्यार नहीं
इबादत की है आपकी
और अगर इबादत में मांगी हुई चीज़ नहीं मिलती
तो खुदा से ख़फा नहीं होते ।

हांलांकि, नखरे आपके कभी कभी पसंद नहीं आये थे
लेकिन नमाज़ की तरह पहले आदत फिर इबादत बनी ।
और फिर रात के एक वक़्त एक बार बात हो जाती आपसे,
वही हमारा इफ्तार और वही सरघी हो जाती ।

इस हिसाब से देखा जाए तो रमज़ान हमारा बारह महीने चला,
लेकिन फिर भी चाँद का दीदार न हुआ।
दीदार न सही, दिवार नहीं है, इस बात की तस्सली खुद को देता रहा ।

कभी कदार दीदार न होना मुनासिब भी लगता था,
गुरुर जो था इतना।
हमारे अलावा और कौन चाहेगा तुम्हे इतना ।
यह भूल गया था की इबादत तो सबसे ज्यादा शैतान ने की थी
लेकिन अंत में नर्क नसीब हुई उसे ।